पिछले दिनों पाकिस्तान के लाहौर एक किले में स्थापित पंजाब के मशहूर शासक Maharaja Ranjit Singh की मूर्ति के साथ तोड़-फोड़ का मामला सामने आया। खबरों की माने तो इस घटना के पीछे चरमपंथ समर्थक तहरीक-ए-लब्बाक-पाकिस्तान का हाथ माना जा रहा है।
बता दें कि इस प्रतिमा को Maharaja Ranjit Singh जी की 180वीं जंयती पर उनकी विरासत के संरक्षण उद्देश्य से 2019 में स्थापित किया गया था। बता दें कि 2019 से लेकर अब तक इस प्रतिमा को 3 बार नुकसान पहुंचाया जा चुका है। जो पाकिस्तानियों के कुछ वर्गों की हिन्दू शासकों के प्रति मानसिकता को दर्शाता है।
हालांकि भारत की बात की जाए तो भारत का अधिकतम जनसमूह विशेषकर युवा पीढ़ी इतिहास के इस महान योद्धा के योगदान से अपरिचित हैं। तो आइये ऐसे ही महान योद्दा के बारे में कुछ बातें जानने का प्रयास करते हैं।
maharaja ranjit singh
maharaja ranjit singh वर्तमान पाकिस्तान में हुआ था जन्म
कमल की कीमत कीचड़ में पैदा होने से होती है ना कि साफ जगहों पर उपजने से। ऐसे ही किसी योद्धा की कीमत संकट के काल में ही होती है। इसी संकट काल में 13 नंवबर 1780 में को पंजाब के गुजरांवाला नामक स्थान पर Maharaja Ranjit Singh जी का जन्म हुआ। यह स्थान वर्तमान पाकिस्तान में है। इनके पिता महा सिंह और माता राज कौर थी। इन्हें जन्म से बुद्ध सिंह का नाम मिला।
(Maharaja Ranjit Singh) बचपन में ही एक आंख की खो बैठे थे रोशनी
कहा जाता है कि Maharaja Ranjit Singh ने एक आंख से दुनिया देखी और उस पर राज किया। दरअसल बाल्यकाल में चेचक बीमारी के चलते रणजीत सिंह अपनी एक आंख खो बैठे। इसी के प्रकोप से उनके चेहरे पर कई निशान भी पड़ गए। इसके बाद उन्होनें कहा था कि मेरे लिए दुनिया देखने के लिए मात्र एक आंख ही काफी है। Maharaja Ranjit Singh जी को कोई विशेष शिक्षा तो नहीं मिलीं, वह केवल गुरूमुखी पढ़ना और लिखना जानते थे। लेकिन युद्ध कौशल और घुड़सवारी में Maharaja Ranjit Singh जी कुशल थे।
(Maharaja Ranjit Singh) सकरचकिया मिस्ल से रखतें थे ताल्लुक
उन दिनों सिख समुदाय लगभग दर्जन भर मिस्लों में बंटा था। Maharaja Ranjit Singh जी सकरचकिया मिस्ल से आते थे। जो जांबाज योद्धाओं और लड़ाकों के लिए मशहूर थी। यह सकरचकिया रावी और चिनाब के मध्य फैला हुआ था। जिसके केन्द्र में गुजरांवाला था।
18वीं शताब्दी में मुगल शासन में अपने सांध्य काल में था। जिसके चलते ईरानियों और अफगानियों समेत पूर्व से कई आक्रमणकारियों के हमले तेज होने लगे थे। जिनसे निपटने का बीड़ा इन्हीं सिख समुदाय की मिस्लों ने उठा रखा था। सकरचकिया मिस्ल के प्रमुख Maharaja Ranjit Singh जी के पिता महा सिंह जी थे।
10 साल की उम्र में लड़ी पहली लड़ाई (Maharaja Ranjit Singh)
अभी Maharaja Ranjit Singh जी की उम्र 10 वर्ष ही ठहरती थी। इसी उम्र Ranjit Singh जी ने अपने पिता के साथ अपनी पहली लड़ाई लड़ी। पुत्र के साहस को देखकर महा सिंह जी ने आपको Maharaja Ranjit Singh नाम दिया।
जब Maharaja Ranjit Singh 12 वर्ष के थे तब इनके पिता सदा के लिए मातृभूमि की गोद में सो गए। Maharaja Ranjit Singh जी महा सिंह जी इकलौते उत्तराधिकारी थे। कम उम्र और पिता के जाने के बाद, विरोधियों द्वारा कई बार इन्हें जान से मां डालने की कोशिश की गई। लेकिन जो आसमान में उड़ने के लिए बने होते हैं, वह ऊंचाई से नहीं डरा करते। Maharaja Ranjit Singh जी ने है हमले को विफल बना दिया और मातृभूमि की सेवा के लिए तत्पर रहे।
1801 में महाराजा बनें रणजीत सिंह
अब Ranjit Singh जी सकरचकिया मिस्ल के मिस्लदार बनाए जा चुके थे। 1798 में Maharaja Ranjit Singh जी ने अहमद शाह अब्दाली के पोते जमन शाह को हराकर लाहौर पर अधिकार हासिल किया। इसके बाद अफगानों को पूरे तरीके से पंजाब से बाहर खदेड़ दिया। पेशावर समेत पश्तून के भी कई इलाके Maharaja Ranjit Singh जी के आधिपत्य में थे। यह पहला मौका था जब पश्तून पर किसी गैर मुस्लिम शासक का राज था। 1801 में लाहौर में Ranjit Singh जी का राज्याभिषेक हुआ, जहां उन्होंने महाराणा की उपाधि प्राप्त की।
चीन तक फैलाया साम्राज्य
अब Ranjit Singh जी ने अमृतसर, जम्मू-कश्मीर की ओर रुख किया। 1812 तक समूचे पंजाब पर Ranjit Singh जी की सत्ता मौजूद थी। Maharaja Ranjit Singh जी को ही पहली आधुनिक भारतीय सेना सिख खालसा सेना गठित करने का श्रेय जाता है। महाराजा के शासनकाल में पंजाब बहुत शक्तिशाली सूबा था। जो कि चीन, अफगानिस्तान सहित कजाकिस्तान के कई हिस्सों तक फैला था। इसी साम्राज्य ताक़तवर सेना ने लंबे वक़्त तक अंग्रेजों को पंजाब घुसने नहीं दिया। एक अवसर यह भी आया जब पंजाब ही एकमात्र ऐसा सूबा था, जिस पर अंग्रेजों का क़ब्ज़ा नहीं था।
स्वर्ण मंदिर को दिया स्वर्णिम रूप
यूं तो Ranjit Singh जी पढ़े लिखे नहीं थे लेकिन उन्होंने ने अपने शासन काल में शिक्षा और कला को विशेष प्रोत्साहन दिया। उन्होंने ने अमृतसर के हरमिन्दर साहिब मंदिर में संगमरमर से निर्माण करवाया तथा सोने का कवर भी चढ़वाया। जिसके बाद इसे स्वर्ण मंदिर के रूप में पहचाना जाने लगा। जो वर्तमान में सिख समुदाय की आस्था का प्रमुख स्थल है।
इसके अलावा काशी विश्वनाथ के यात्रा के दौरान उनके दान पुण्य और उदारता का चित्रण आज भी स्वर्ण पत्र के रूप में अंकित है। Ranjit Singh जी ने काशी विश्वनाथ मंदिर को एक टन सोना भेंट किया जिससे मंदिर के शिखर पर सोना चढ़ाया गया।
धर्मनिरपेक्षता के रहे जनक
इसके अलावा धर्मनिरपेक्षता का जो शासन Ranjit Singh जीके काल में देखा वह विश्व पटल पर आदर्श बना। Maharaja Ranjit Singh जी के शासन काल में पंजाब में 70% आबादी मुस्लिम समुदाय से आती थी। वहीं लगभग 25% आबादी हिंदू धर्म से थी। केवल 6-7% सिख अनुयायी ही महाराजा की प्रजा में शामिल थे। Maharaja Ranjit Singh जी सभी के प्रति समान स्नेह था तथा बढ़ने के समान अवसर मिलते थे। उन्होंने हिंदुओं और सिखों से वसूले जाने वाले जज़िया कर पर भी रोक लगाई। कभी किसी को सिख धर्म अपनाने के लिए विवश नहीं किया।
Ranjit Singh जी के पराक्रम से प्रभावित होकर फ्रांसीसी, मुस्लिम सहित कई अन्य विदेशी सैनिक इनकी सेना में भर्ती हुए। लेकिन अंग्रेजों को कभी स्थान नहीं दिया गया। Maharaja Ranjit Singh जी का मानना की उन्हें अंग्रेजों के प्रति अविश्वास झलकता है।
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कोहिनूर Maharaja Ranjit Singh जी की देन
Maharaja Ranjit Singh जी शान और शौकत के भी धनी थे। उन्होंने अपने राज दरबार के लिए एक स्वर्णिम सिंहासन बनवाया था। विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा Ranjit Singh जी के शासन काल में निर्मित किया गया। जिसे वह उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी मंदिर में भेंट करना चाहते थे। लेकिन Maharaja Ranjit Singh जी की मृत्यु के बाद इसे अंग्रेजों ने हथिया लिया।
1839 आने तक Ranjit Singh जी को लकवा की बीमारी ने घेर लिया। देशी वैद्यों समेत कई अंग्रेजी चिकित्सकों ने भी महाराजा का इलाज किया। लेकिन अब बुलावा आ चुका था। 1839 में लाहौर में Ranjit Singh जी का निधन हो गया। जिसे दुश्मन की तलवारें छू भी ना सकी उसे एक बीमारी ने नतमस्तक कर दिया। लाहौर में आज भी Maharaja Ranjit Singh जी की समाधि शान से गौरव गाथा का बयान करती है।
महाराजा ज्ञान सिंह की मृत्यु के बाद 1849 में तीसरे आंग्ल-सिख युद्ध में सिक्खों को पराजय झेलनी पड़ी। पंजाब पर अंग्रेजी हुकूमत का शासन हो गया। जिसके बाद पंजाब कभी-भी एक ना हो सका।