Why is the danger of drowning in the sea increasing in 12 cities of India?

Global Warming:- हाल ही Intergovernmental Panel on Climate Change (IPCC) की रिपोर्ट के हालिया अध्ययन से नासा ने एक मैप प्रस्तुत करते हुए यह दावा किया है आज से लगभग 80 सालों के बाद समुद्री जलस्तर इतना बढ़ जाएगा कि भारत समेत दुनिया के कई बड़े देशों जैसे जापान, अमेरिका, ब्रिटेन आदि के समुद्र के किनारे स्थित कई महानगर समुद्र में डूब जाएंगे।
इस दावे में भारत के 12 शहर खतरनाक स्थिति के लिए चिन्हित किये गयें हैं। जिनमें मुंबई, चेन्नई, कोचीन, विशाखापट्टनम, आदि को लेकर आशंका जताई जा रही है कि लगातार हो रही पर्यावरणीय दशाओं के परिवर्तन को देखते हुए इन शहरों का भविष्य खतरें में है। नासा ने इस रिपोर्ट के आधार पर दावा किया है कि शताब्दी के अंत तक समुद्री जलस्तर लगभग तीन फीट तक बढ़ने वाला है।
यदि लगातार हो रहे पर्यावरण और जलवायु परिवर्तनों को देखा जाए तो शहरों का डूबना एकमात्र परिणाम नही है। पर्यावरण हानि के कई और भी भयावह परिणाम हमें देखने को मिल सकते है। जिनके बारे में जानने के लिए हमें IPCC की इस रिपोर्ट को विस्तार से समझना होगा।
IPCC क्या है?What is IPCC
IPCC संयुक्त राष्ट्र का एक अंतर सरकारी निकाय है। इसे 1988 में विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के सहयोग से स्थापित किया गया। IPCC जलवायु परिवर्तन पर एक मूल्यांकन रिपोर्ट तैयार करता है। जो पृथ्वी पर जलवायु की व्यापक स्थिति का वैज्ञानिक अवलोकन प्रस्तुत करता है। जिसका उद्देश्य मानवीय क्रियाकलापों से प्रेरित जलवायु परिवर्तनों के जोखिम के बारे में जानकारी प्रदान करना है तथा संभावित समाधान प्रस्तुत करना है।
IPCC की पहली आकलन रिपोर्ट 1990 में आई थी। दूसरी रिपोर्ट 1995 में आई जो 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल का आधार बनी। 2007 में आई चौथी रिपोर्ट को नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया था। 2014 में आई पांचवीं रिपोर्ट 2015 को पेरिस समझौते के लिए मुख्य वैज्ञानिक इनपुट के रूप में माना गया। इसकी छठी मूल्यांकन रिपोर्ट का पहला भाग, 9 अगस्त को जारी किया गया।
क्यों महत्वपूर्ण है IPCC की रिपोर्ट?Global Warming
IPCC की इस रिपोर्ट को तीन वैज्ञानिकों के समूहों ने मिलकर तैयार किया है। 9 अगस्त को जिनमें से पहले वैज्ञानिक समूह के आकलनों की रिपोर्ट प्रस्तुत की गई है। जिसमें जलवायु परिवर्तनों के वैज्ञानिक आधारों का अध्ययन किया गया है। इस रिपोर्ट में 750 से ज्यादा वैज्ञानिकों ने अपना योगदान दिया है
इस रिपोर्ट के महत्व की बात की जाए तो जलवायु परिवर्तन के बारे में सबसे व्यापक रूप से स्वीकृत वैज्ञानिक राय है। यह रिपोर्ट सरकारी नीति निर्धारण के लिए आधार तैयार करती है। अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन वार्ता के लिए भी यह रिपोर्ट वैज्ञानिक आधार प्रदान करती है।
सदी के अंत तक 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा तापमान(Global Warming)
IPCC की इस रिपोर्ट में पृथ्वी के लगातार बढ़ रहे तापमान पर विशेष चिंता जाहिर की गई है। ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) के प्रभाव से इस सदी के अंत तक पृथ्वी का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने की आशंका है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर तत्काल लगाम नहीं लगाई गई तो यह आंकड़ा लगभग 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाने की आशंका है। जिसके परिणामस्वरूप वर्षा, सूखा, गर्मी की लहरें, चक्रवात और अन्य की आवृत्ति और तीव्रता तेजी से बढ़ने की उम्मीद है। जो कि कृषि तथा मानवीय स्वास्थ्य की सहनशीलता क्षमता को पार कर सकता है।
तेजी से क्यों पिघल रहे हैं ग्लेशियर?
इसका ही प्रभाव है कि हिमनदो का पिघलना और भूस्खलन जैसी की बारंबारता में तेजी आ रही है। इस साल के शुरुआत में हम उत्तराखंड में ग्लेशियर पिघल जाने की घटना को देख चुके हैं। वहीं हाल में हिमाचल प्रदेश के किन्नौर की भूस्खलन की घटना भी ऐसे ही पर्यावरण विघटनों का परिणाम है। किन्नौर जिले इस आपदा में राहगीरों पर अचानक ही पहाड़ का एक हिस्सा आ गिरा। जिसमें लगभग दर्जन भर लोगों की मौत हो गई।
इसके अलावा 2040 तक ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) के लिए जो 1.5 डिग्री की सीमा तय की गई है उसके पहले ही भंग होने का अनुमान है।
IPCC की रिपोर्ट इंगित करती है कि मौसम में चरम परिवर्तनों का कारण लगातार पर्यावरण को क्षरित करने वाली मानवीय गतिविधियां हैं। मानवीय उपभोग संसाधनों से पर्यावरण में लगातार प्रदूषणकारी और अवांछनीय तत्व वातावरण में मिल रहें हैं। जो कि लगातार या तीव्र गर्मी की लहरों का उठना, ग्लेशियरों का पिघलना, समुद्र का गर्म होना और अम्लीकरण के जैसी घटनाओं के मुख्य चालक हैं।
2020 में आई साइबेरियन हीट वेव और 2016 में पूरे एशिया में अत्यधिक गर्मी पड़ना (Global Warming) , मनुष्यों द्वारा जीवाश्म ईंधन के अत्यधिक दोहन के बिना कभी संभव नहीं होता।
क्यों डूब जाएंगे दुनिया भर के प्रमुख शहर?
यदि 1901 से 1971 तक की तुलना की जाए तो 70 वर्षों में समुद्री जलस्तर लगभग तीन बढ़ चुका है तथा लगातार बढ़ना जारी है। आर्कटिक सागर में बर्फ की मात्रा एक हजार के सबसे निम्न स्तर पर है। हिंद महासागर के गर्म होने से जलस्तर में वृद्धि होगी जिससे निचले इलाकों में बाढ़ का खतरा बढ़ेगा। इसी के परिणामस्वरूप भारत के 12 शहरों के डूबने का अनुमान है।
क्षेत्रीय जलवायु पर भी गंभीर खतरा
क्षेत्रीय जलवायु पर भी गंभीर असर देखने को मिल सकते हैं। आर्कटिक अन्य क्षेत्रों की तुलना में तेजी से गर्म हो रहा है। इस सदी के दौरान गल्फ स्ट्रीम के कमजोर होने की बहुत संभावना है। अटलांटिक महासागर की धारा में वृद्धि क्षेत्रीय मौसम पैटर्न को बधित करेगी। अंटार्कटिक बर्फ की चादरों के पिघलने से समुद्र का स्तर वर्ष 2100 तक एक मीटर से अधिक और 2500 तक 15 मीटर तक बढ़ सकता है।
ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) का नया खतरा मीथेन
इसके अतिरिक्त मीथेन के उत्सर्जन पर गंभीर विचार विमर्श की आवश्यकता है। मीथेन का ग्लोबल वार्मिंग पर प्रभाव 20 साल की अवधि में CO2 की तुलना में 84 गुना अधिक है।लगातार इन परिणामों के साथ हम कुछ अपरिवर्तनीय परिवर्तनों की ओर बढ़ रहे हैं, जैसे लगातार गर्म मौसम और वनों का खत्म होना।
भारत तीसरा बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश
भारत की बात की जाए तो भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है। शुद्ध-शून्य लक्ष्य पर सहमत होने के लिए भारत पर वैश्विक दबाव बढ़ सकता है। 100 से अधिक देशों ने पहले ही अपने शुद्ध-शून्य उत्सर्जन लक्ष्य की घोषणा कर दी है। इनमें संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन और यूरोपीय संघ जैसे प्रमुख उत्सर्जक शमिल हैं।
क्या हो बचाव की रणनीति?
इसके अलावा कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण लगाने के लिए कोयले के सम्पूर्ण दोहन पर रोक की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त तेजी से इलेक्ट्रॉनिक वाहनों को दिनचर्या का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। साथ ही पृथ्वी पर जितने वन बाकी है उनका का संरक्षण करना तथा कटाव आदि से रोकना आवश्यक है। मीथेन जैसे तेजी से बढ़ रहे खतरों पर भी नियंत्रण जरूरी है
उपरोक्त प्रतिबंधों के साथ साथ कुछ नवाचारों को अपनाने की भी आवश्यकता है सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा के प्रयोग पर जोर देना, हाइड्रोजन और जैव ईंधन जैसे विकल्पों को बढ़ावा देना आवश्यक है। इलेक्ट्रॉनिक वाहनों के लिए जमीनी स्तर पर चार्जिंग प्वाइंट आदि के विकास की भी जरूरत है। निर्माण कार्यों में कम कार्बनिक सीमेंट और गैर प्लास्टिक सामग्री के प्रयोग पर जोर देना आवश्यक है। तथा जहां तक हो सके ऊर्जा के नवीकरणीय स्त्रोतों पर निर्भरता बढ़ाई जानी चाहिए।
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